Thursday, December 23, 2010

अहसासों की उडान


ना जाने कब अहसासों को पंख लग गए

और कहा की अब सबके साथ उड़ना है

उसने कहा

मानता हु की ज़िन्दगी की डगर

है मुश्किल मगर

राह से हटना भी तो एक डर है

राह से हट भी जाऊ किसी के लिए

क्या भरोसा की वो अपना हमसफ़र हो

ढूढता रहा राह भर

सांसे रोककर

कोई तो हो जो इन् उड़ाते पंखो को

निहार सके

और अपना माने

लेकिन लोग मिलते गए , चलते गए

वो देखता रहा आंखे भर-भर कर

भागना चाहा वह अपने से डरकर

विश्वास ना ला पाया खुद पर

अंततः वो टूटने सा लगा

छुप गया वो भागकर

कहा की ना जाने क्यों

बदलने से लगे है लोग

उसके पंख टूटने से लग गए

कहा की अब नहीं है वो पहचान

कम सी होने लगी उडान .

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