Sunday, July 10, 2011

मन कुछ ओझल सा हो जाता है


साँझ के वक़्त
आते हर उस पल
मन कुछ ओझल सा हो जाता है
जब जब तेरा चेहरा
उन् यादों में पाता है
उन् यादों को सम्हालना
बहुत ही मुस्किल सा हो जाता है
जब बहती हवाओ में
आपकी मधुर आवाज़ कानो
को दिग्भ्रमित कर
चारो ओर मंडराता है
मन मृग बन कस्तूरी की
आशा करता है
और चारो ओर निगाहे लगा
आप के पदचिन्हों को ढूढता है
न जाने कब ये आस मिटेगी
कानो को सुनने को वो आवाज़ मिलेगी
न देखा अब तक जिस चेहरे को
उसकी परछाई का आभास मिलेगी

No comments:

Post a Comment